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होता॑ यक्षत्ति॒स्रो दे॒वीर्न भे॑ष॒जं त्रय॑स्त्रि॒धात॑वो॒ऽपसो॑ रू॒पमिन्द्रे॑ हिर॒ण्यय॑म॒श्विनेडा॒ न भार॑ती वा॒चा सर॑स्वती॒ मह॒ऽइन्द्रा॑य दु॒हऽइ॑न्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। ति॒स्रः। दे॒वीः। न। भे॒ष॒जम्। त्रयः॑। त्रि॒धात॑व॒ इति॑ त्रि॒ऽधात॑वः। अ॒पसः॑। रू॒पम्। इन्द्रे॑। हि॒र॒ण्यय॑म्। अ॒श्विना॑। इडा॑। न। भार॑ती। वा॒चा। सर॑स्वती। महः॑। इन्द्रा॑य। दु॒हे॒। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) विद्या देनेवाले विद्वज्जन ! जैसे (होता) विद्या लेनेवाला (तिस्रः) तीन (देवीः) देदीप्यमान नीतियों के (न) समान (भेषजम्) औषध को (यक्षत्) अच्छे प्रकार प्राप्त करें वा जैसे (अपसः) कर्मवान् (त्रिधातवः, त्रयः) सब विषयों को धारण करनेवाले सत्व, रजस्, तम गुण जिनमें विद्यमान वे तीन अर्थात् अस्मद्, युष्मद् और तद् पदवाच्य जीव (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय (रूपम्) नेत्र के विषय रूप को (इन्द्रे) बिजुली में प्राप्त करें वा (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा तथा (इडा) स्तुति करने योग्य (भारती) धारणावाली बुद्धि के (न) समान (सरस्वती) अत्यन्त विदुषी (वाचा) विद्या और सुशिक्षायुक्त वाणी से (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यवान् के लिए (महः) अत्यन्त (इन्द्रियम्) धन की (दुहे) परिपूर्णता करती वैसे जो (परिस्रुता) सब ओर प्राप्त हुए रस के साथ (पयः) दूध (सोमः) औषधिसमूह (घृतम्) घी (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे हाड, मज्जा और वीर्य शरीर में कार्य के साधन हैं वा जैसे सूर्य आदि और वाणी सब को जनानेवाले हैं, वैसे होके और सृष्टि की विद्या को प्राप्त होके लक्ष्मीवाले होओ ॥३७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) विद्यादाता (यक्षत्) सङ्गमयेत् (तिस्रः) (देवीः) देदीप्यमाना नीतीः (न) इव (भेषजम्) औषधम् (त्रयः) तदस्मद्युष्मत्पद्वाच्याः (त्रिधातवः) दधति सर्वान् विषयानिति धातवस्त्रयो धातवो येषान्ते जीवाः (अपसः) कर्मवन्तः। अत्र विन् प्रत्ययस्य लुक् (रूपम्) चक्षुर्विषयम् (इन्द्रे) विद्युति (हिरण्ययम्) (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (इडा) स्तोतुमर्हा (न) इव (भारती) धारणावती प्रज्ञा (वाचा) विद्यासुशिक्षायुक्तवाण्या (सरस्वती) परमविदुषी स्त्री (महः) महत् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यवते (दुहे) प्रपूरयति (इन्द्रियम्) धनम् (पयः) रसः (सोमः) ओषधिगणः (परिस्रुता) सर्वतः प्राप्तेन (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा होता तिस्रो देवीर्न भेषजं यक्षद् यथाऽपसस्त्रिधातवस्त्रयो हिरण्ययं रूपमिन्द्रे यजेरन्। अश्विनेडा भारती न सरस्वती वाचेन्द्राय मह इन्द्रियं दुहे तथा यानि परिस्रुता पयस्सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यथाऽस्थिमज्जवीर्य्याणि शरीरे कर्मसाधनानि सन्ति, यथा च सूर्यादयो वाणी च सर्वज्ञापकाः सन्ति तथा भूत्वा सृष्टिविद्यां प्राप्य श्रीमन्तो भवत ॥३७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे अस्थि, मज्जा व वीर्य ही शरीराचे कार्य करण्याची साधने आहेत किंवा जसे सूर्य सर्वांना उत्पन्न करतो व वाणीने सर्व कार्य पार पडते तसे सृष्टीविद्या जाणून लक्ष्मी प्राप्त करा.